पिछले महीने यूथ अलायन्स टीम ने ग्रामीण युवाओं के साथ The Ecology of Self प्रोग्राम समाप्त किया। पिछले दस सालों से यूथ अलायन्स आत्म-जागरूकता के कार्य में अग्रसर है। आज इस काम को SEL (Social Emotional Learning) भी कहा जाने लगा है। ऐसा इसलिए है, क्यूँकि education industry (हाँ शिक्षा industry तो कब का बन गया है) को ये समझ आ गया कि भावनाएँ कितनी महत्वपूर्ण हैं, जीवन के लिए। और चाहे economics ने हमें कितना ही rational कहा हो, हम emotional प्राणी हैं। अक्सर reason मुखोटा होता है, अंदर की भावना का । नुएरो-बीयोलोजिस्ट हम्बेरतो मतुराना का तो यहाँ तक कहना है कि इंसान भावना के क्षेत्र में जीता है - हमारी दृष्टि, दुनिया को समझने की शमता और हमारा कर्म भावना पर ही निर्भर है।
ख़ैर मैं प्रेरित हूँ इसके बारे में लिखने के लिए क्यूँकि ये अनुभव हमारे लिए कुछ नया था। थोड़ा संदर्भ देता हूँ, ये दूसरा सत्र था इस प्रोग्राम का, ये हमने दृष्टि स्कॉलर्स के साथ किया। दृष्टि ह्यूमन रीसर्स सेंटर हर साल कुछ बच्चों को उनके उच्च-शिक्षा के लिए सहयोग करता है - आर्थिक, अंग्रेज़ी और कम्प्यूटर के हुनर और आत्म-जागरूकता में । इसका तीसरा पहलू - आत्म-जागरूकता अलायन्स द्वारा किया गया। ये बच्चे दृष्टि से जुड़ी संस्थाओं से आते हैं - माहेर आश्रम, गोवर्धन ईको-विलेज, इत्यादि। सभी बच्चे ग्रामीण परिवेश से आते हैं।
ये प्रोग्राम ऑनलाइन हुआ - ये इसकी सम्भावना का कारण भी रहा और बहुत बड़ी चुनौती भी। यूथ अलायन्स के टीम सदस्ये - सलोनी, आकांक्षा, रेणु और मंतव्य की रिया ने - एक महीने में इसकी सम्भावना को भले-भाँति निखारा । मैं समय समय पे कुछ सेशन का हिस्सा बना और इसकी समझ की नींव में योगदान किया। और ये सब मेरे लिए बहुत खूबसूरत तोहफ़े ले कर आया, नयी प्रेरणा और धर्म-प्रेम से परिपूर्ण।
स्वाध्याय
तो पहला पहलू इस प्रोग्राम का था भावनाओं की जागरूकता। ये बहुत ही साधारण उपयोग है - परंतु बहुत कारगर। इसके दो तीन कारण मुझे नज़र आते हैं -
पहला, ये भावनाओं की जागरूकता है, उन्हें अच्छी या बुरी में बाटने के लिए नहीं - बल्कि बस देखने के लिए। अपनी भावनाओं को देख पाने भर से - एक इंसान उसके नीचे की परत से परिचित हो सकता है। क्यूँकि ये समझ में आने लगता है, की भावनाएँ तो बदलती रहती है। तो शायद प्रतिक्षण की भावना में फ़सने की सम्भावना कम हो जाती है।
दूसरा, इस प्रॉसेस का उद्देश्य अपनी भावनाओं पर क़ाबू पाना या उन्हें बदलना भी नहीं है। आत्म -चिंतन के सफ़र में कभी कभी हमें dark emotions को दबाने को कहा जाता है - ईर्षा, प्रतिस्पर्धा, मोह, वगहरह को हटाकर प्रेम, करुणा, तत्पर्ता इत्यादि को बढ़ाने को कहा जाता है।
पर क्या जीवन का सम्पूर्ण अनुभव सारी ही भावनयों से नहीं बनता? तो अगर हम में शमता बन जाए - भावनाओं को दृष्टता भाव से देखने की तो हमारा राग, द्वेष और मोह वैसे ही मिटने लगेगा।
तीसरा, जैसा मैंने पहले भी कहा हमारा दुनिया देखने की दृष्टि अत्यंत गहराई से निर्भर होती है - हमारी मनो-स्तिथि पर, जो कि बनती है हमारी भावनाओं से। तो जब हम अपनी भावनाओं के प्रति जागरूक हो जाते हैं, अपनी दृष्टि को और साफ़ करने लगते है। उदाहरण के लिए, हमारे अंदर के ग़ुस्से का प्रतिबिम्भ संसार पर नहीं गिरता। ये भी कहना आवश्यक होगा कि - अंदर और बाहर एक ही जीवन के पहलू हैं। तो अपनी भावनाओं की जानकारी, स्वाध्याय का पहला स्तर है शायद। एक सहभागी ने कहा कि उन्हें ये शक्ति मिली की वो अपने डर को देख पाएं। उन्हें यह एहसास हुआ की डर के पार जाने की क्षमता उनके अंदर ही है।
संघ
प्रेम क्या है - ये तो बहुत सारी किताबों / वार्तालापों का विषय रहा है । एक परिभाषा जो मुझे बहुत भाती है वो है - Love is letting the other appear as legitimate। प्रेम वो है जो दूसरे को पूर्ण और प्रत्यक्ष रूप से आभास कराये।
ये उस समझ के विपरीत मालूम होता है - जो कहती है - दूसरा है ही नहीं। परंतु मैं इन दोनो बातों को समावेशी मानता हूँ। पर इसपे मैं बाद में लिखता हूँ।
प्रेम संघ की नींव है। हमारे लिए दूसरे को पूर्ण रूप से सुन पाना इसलिए कठिन होता है - क्यूँकि हमें खुद पर आत्म-विश्वास नहीं होता। हमें डर होता है, कि दूसरे के विचारो को जगह देते देते कहीं हमारे विचारों के लिए जगह ना बची तो? हम दूसरे को तो द्रष्टा भाव प्रदान करें, पर कहीं हम इस प्रयास में - ग़ायब ना हो जाएँ।
हम दूसरे को तभी सुन सकते हैं - जब हमें खुद में आत्म-विश्वास हो।
इस प्रोग्राम में हमनें एक शुरुआत की, इस प्रेम के प्रयोग की ओर। एक दूसरे को सुन पाना, बिना अनुमान (judgement) या उपदेश (advice) के - एक खूबसूरत अनुभव है। एक विद्यार्थी ने कहा - की वे वो सब कुछ साँझा कर पाए इस संघ के साथ जो उन्होंने पहले कभी नहीं किया।
एक सहभागी का कहना था की उन्होंने दूसरे व्यक्ति की भावनाओं में बहे बिना , उन्हें जज किये बिना सुनना सीखा। उन्होंने ये भी कहाँ की अपने विचारो को बिना दोष दिए दूसरे व्यक्ति के सामने कैसे रख सकते हैं ।
अनुपालन
(Obedience/Conformity)
हमारी शिक्षा प्रणाली obedience या अनुपालन करने को काफ़ी महत्व देती है। इसका एक पहलू तो आदर से जूड़ा है परंतु दूसरा जुड़ा है खुद की निर्णय-शक्ति को विक्षिप्त करने से। आत्म-चिंतन का परिणाम हमारी निर्णय-शक्ति पर पड़ता है, जो की हमें स्वावलंबन की तरफ अग्रसर करता है।
पूर्णता की दृष्टि
आधुनिक संस्कृति में हमें अपना ध्यान ‘कमी’ पर लगाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। ये चाहे पदार्थ की दुनिया की बात हो या खुद को आकने की । ये कमी-केंद्रित दृष्टि - मीडिया, विज्ञापन, शिक्षा, आजीविका - सभी क्षेत्रों से बनती है। इस प्रोग्राम में इस दृष्टि को परिवर्तित करने पर काम हुआ। क्या हम अपना ध्यान जो हमें मिला है उसपर ले जा सकते हैं बजाय जो हमारे पास नहीं है? पदार्थ की दुनिया में ये अन्यायी भी कहा जा सकता है - क्यूँकि न्याय के काम की एक दिशा धन के सामान वितरण के लिए भी है। न्याय के काम की एक दिशा धन के सामान वितरण के लिए भी है। ये एक महत्वपूर्ण समझ है, इस लेख के ज़रिये मैं आपका ध्यान इस प्रश्न की ओर लेजाना चाहता हूँ - "एक तृप्त जीवन जीने के लिए, क्या चाहिए?" इस प्रश्न में पदार्थ की दुनिया सम्मिलित है, परन्तु ये उसके परे का प्रश्न है। क्यूंकि तृप्ति तो एक आंतरिक अनुभव है।
हमारा आत्म-चिंतन, आत्म-समवाद कमी-केंद्रित हो सकता है चाहे हम किसी भी आर्थिक स्तर पे हों? अपने तोहफ़ों पर ध्यान ले जाना जूड़ा है - हमारी मानसिक स्वास्थ्य से, हमारे जीवन सम्पूर्णता से और कल्याण से भी।
अपने संदर्भ की समझ
शायद आप मुझसे सहमत होंगे कि इस देश में ग्रामीण परिवेश को अनगढ समझा गया, जब तक ग्राम में शहरी विकास की चेतना नहीं जागेगी तब तक वो पिछड़ा कहलायेगा। । इसका कारण colonial शिक्षा प्रणाली, आर्थिक व्यवस्था, सांस्कृतिक अविश्वास इत्यादि हो सकते हैं। ये प्रवृत्ति ‘ग्वार’ शब्द के प्रयोग से देखी जा सकती है - जब आपको किसी को पुरातन या मुर्ख बताना होता है, तो हम उसे ग्वार कह देते हैं।
सबसे पहला तोहफ़ा ग्रामीण परिवेश का है - की गाओं में मानव संस्कृति प्रकृति के साथ साथ चलती है।
इस प्रोग्राम के एक सेशन 'आस-पड़ोस से हमारे सम्बन्ध' में हमने हमारे पड़ोसियों की सराहना करना सीखा। ये पडोसी मनुष्य तो हो सकते हैं, परन्तु प्रकृति के अन्य जीव तथा वातावरण भी तो हो सकते हैं - जैसा की कुंवर नारायण की इस कविता में कहा गया है - "पेड़ जो हमारे पडोसी है"
प्रबल प्रश्न की भूमिका
अपने reflection में इस प्रोग्राम की फैसिलिटेटर आकांक्षा बताती हैं की कैसे कई बच्चों ने सांझा किया की इस प्रोग्राम में पहली बार उन्होंने अपनी कहानी को करीब से देखा। उन्हें एक सुरक्षित जगह का अनुभव हुआ जहाँ वे अपने बचपन के अनुभवों को एक नयी दृष्टि से देख पाए। इसमें अपने बचपन के ज़ख्मो को देखने का कठिन और नाज़ुक प्रोसेस भी शामिल है। शायद ये ही उन्हें उससे heal करने का मौका प्रदान करे। और इस सब में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है - प्रबल प्रश्न पूछना।
आखिर फ़ारसी कवी रूमी का भी तो कहना है - ज़ख्म वह खिड़की है जिससे रौशनी दाखिल होती है। तो शायद यह प्रोग्राम शायद वो छोटी सी खिड़की बन पाया हो।
सही और ग़लत के उस पार
तो कुछ ऐसा सफर रहा - दृष्टि के अद्धभुत विद्यार्थियों के साथ। ये प्रोसेस एक सच या एक नजरिया को अपनाने का नहीं था - परन्तु एक कोशिश थी अपना नजरिया बनाने की। एक निमंत्रण था खुद के जीवन को उस नज़र से देखना जो सही और गलत के पार की है। हम अत्यंत कृतज्ञ हैं दृष्टि ह्यूमन रिसोर्स सेण्टर का और उनसे जुड़ी संस्थाओं का, की उन्होंने हमें मौका दिया इन विद्यार्थियों की जीवन यात्रा में कुछ योगदान कर सकें।
Shashank, bohot khoobsurti se tumne humaari journey ko summarise kiya yahan. Ek question jo tumne poocha jo mere saath hai wo ye hai ki, "hum doosro ko kyun nahin sun pate hain?" - shayad isliye kyunki hume self confidence nahin hai. Ye bhot beautiful reflection hai, main ispe aur sochna chahungi. Thank you iss safar mein saath hone ke liye - iss reflection ko padhne ke baad main iss journey ko miss kar rahi hoon.